लगी हैं नजरें अब आसमां की ओर/
नया सफर, नयी है मंजिलें भी /
चले हैं बांधने नए से कुछ रिश्तों की डोर /
कंक्रीट के जंगल है, अनगिनत मंजिलों में /
सिमटी अनगिनत जिंदगियां /
एक दूसरे से अजनबी /
हैं कितनी मसरूफ यह जिंदगियां /
सर्दियों के मौसम में बालकनी से झांकता /
सहमा सहमा सा धूप का टुकड़ा /
ऊँची ऊँची इमारतों को पार करके पहुँचता है /
मुझ तक बस यही थका हुआ सा धूप का टुकड़ा /
इन्ही इमारतों में धरती से दूर बालकनियों की मुंडेरों पर/
खिलते है बसंत के फूल यूँ गमलों में
कह रहें हों गोया , है नियम प्रकृति का वर्ना /
क्या खाक मज़ा है रहना /
होकर कैद यूँ गमलों में /
कैसा बसंत कैसी बहार ऊँची ऊँची इन इमारतों के/
इस जंगल में न कोई तितली हैं न भवंरा /
न गिलहरी दिखती है यहाँ न गोरैय़ा चहकती है/
बस इक उदासी इक अजब सा सूनापन है बिखरा/
जमीं की ओर रुनझुन कर गिरती बरखा की बूंदे भी /
छींटों में बदल जाती मुंडेरों से टकराते टकराते /
मिटटी की वो सोंधी महक गुजर कर अनगिनत मंजिलों से /
हो जाती है मद्धम मुझ तक आते आते /
खो गया मौसमों का पता उनके लिए रहते हैं जो /
फलक और जमीन के बीच कहीं /
कोयल की कूक , बौर से लदे वो आम के पेड़,धरती पर गिरती /
नीम की निमौरियों की चर्चा अब होती नहीं कहीं /
मिलते है लोग यहाँ अक्सर आते जाते सीढ़ियों में /
लिफ्ट में कभी ,तो कभी सैर को जाते सुबहो- शाम /
भावहीन चेहरे ,हाथो में मोबाइल और कानों में अाइ-पाँड/
कोई मुस्कान किसी पहचान का नही रहा चलन अब आम /
बहुत पास पास हैं घर ,आमने सामने खुलते हैं दरवाजे भी /
पर दिलों के द्वारों पे लगा लिए हैं ताले आज के इन्सान ने /
तीज त्योहारों का आना जाना घर की दीवारों में सिमट कर रह गया /
कितना संकुचित कर लिया रिश्तों का दायरा आज के इंसान ने /
याद है अब तक बारिश के बाद आने वाले उस इन्द्र्धनुष को देखने/
छत की तरफ दौड़ती बच्चों की वो टोली /
वो आंगन में अमरुद का पेड़ वो पड़ोस की दादी /
वो सब्जी वाले की हांक वो चिठ्ठियां बांटते डाकिये चाचा की मीठी बोली/
छोड़ आये सब पीछे बहुत आगे बढ़ गया इंसान /
जमीं छोटी पड़ने लगी अब सितारों पर है नजर /
आशियानें बनने लगे अब वहाँ जहां का कोई पता नहीं /
वो फ़लक है या जमीं खबर यह भी नहीं /
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