स्कूल से आकर बस्ता फेंककर
कहीं जूते तो कहीं यूनिफार्म फेंकते थे,
तेरी पीठ पर लदकर हम
स्कूल की सारी गप्पें सेकते थे,
बड़े लाड़ से फिर तू कैसे कान मरोड़ती,
माँ फिर बनादे एक छोटी सी रोटी।।
रसोई से निकलकर
जब तू कमरे का हाल देखती थी,
डांटती थी हर रोज़
जब कमरे को तू बेहाल देखती थी,
हँसते थे हम तो ढूँढती थी तू तेरी डंडी मोटी,
माँ फिर बनादे एक छोटी सी रोटी ।।
होकर जब नाराज़ कभी छत पर
तो कभी बिस्तर के नीचे छुप जाते थे,
देखकर आँसूं आँखों में हमारी
कैसे तेरे भी मोती झर जाते थे,
कान पकड़कर फिर कैसे तू बन जाती थी छोटी,
माँ फिर बनादे एक छोटी सी रोटी ।।
पीठ पर बिठाकर तू
कैसे फिर हमको बहलाती थी,
अहा ! अहा ! कहकर
कैसे सारी सब्जी खिलाती थी,
लालच को थाली में रखती थी आख़िरी छोटी रोटी,
माँ फिर बना दे एक छोटी सी रोटी..
कहीं जूते तो कहीं यूनिफार्म फेंकते थे,
तेरी पीठ पर लदकर हम
स्कूल की सारी गप्पें सेकते थे,
बड़े लाड़ से फिर तू कैसे कान मरोड़ती,
माँ फिर बनादे एक छोटी सी रोटी।।
रसोई से निकलकर
जब तू कमरे का हाल देखती थी,
डांटती थी हर रोज़
जब कमरे को तू बेहाल देखती थी,
हँसते थे हम तो ढूँढती थी तू तेरी डंडी मोटी,
माँ फिर बनादे एक छोटी सी रोटी ।।
होकर जब नाराज़ कभी छत पर
तो कभी बिस्तर के नीचे छुप जाते थे,
देखकर आँसूं आँखों में हमारी
कैसे तेरे भी मोती झर जाते थे,
कान पकड़कर फिर कैसे तू बन जाती थी छोटी,
माँ फिर बनादे एक छोटी सी रोटी ।।
पीठ पर बिठाकर तू
कैसे फिर हमको बहलाती थी,
अहा ! अहा ! कहकर
कैसे सारी सब्जी खिलाती थी,
लालच को थाली में रखती थी आख़िरी छोटी रोटी,
माँ फिर बना दे एक छोटी सी रोटी..
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