Monday, 5 January 2015

Rehaanaa ka Shyaam……Ek Mazhabi Paigaam

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रेहाना और श्याम , आज फिर छिपकर सिनेमा हॉल में फिल्म देखने आये थे ।हर हफ्ते इतवार के दिन रेहाना अपने कॉलेज में जाती थी और श्याम उसी एक इतवार का बड़ी ही बेसब्री से इंतज़ार करता था । रेहाना नॉन कॉलेज से बी . ए . की पढ़ाई कर रही थी और ये उसका आखिरी साल था । सिर्फ इतवार को ही उसकी कक्षाएँ लगती थीं जिन्हें वो फिल्म देखने में खराब कर देती थी । कहते हैं ना …..कि इश्क को जितना रोको …..वो उतना ही ज्यादा तेज़ी से उबलने लगता है । बस इसी तरह श्याम और रेहाना का इश्क था ….जो ना जाने अब कौन सा पड़ाव पार करने की उधेड़बुन में लगा हुआ था ।
श्याम एक MNC में काम करता था और दोनों ही दिल्ली जैसे बड़े शहर में रहते थे । श्याम अपने माता-पिता की इकलौती संतान था और जाति से पंडित था । पंडित  यानि माँस ,मदिरा आदि सभी का उसके लिए निषेध था और रेहाना अपने छह भाई-बहनों में सबसे छोटी थी और जाति ही नहीं धर्म में भी श्याम के बिलकुल विलोम थी । रोज़ भोजन में माँस के बिना उसको स्वाद ही नहीं आता था और मियाँ अख्तर तो अपनी लाडली के लिए रोज़ ही नए-नए तरीको का गोश्त अपने हाथ से बनाकर उसकी थाली में सजाते थे । छोटी होने की वजह से रेहाना भी अपने अब्बू की लख्त~ए~जिगर थी । मगर दिल्ली जैसे बड़े शहर में आए दिन बढ़ती वारदातों को लेकर वह हमेशा चिंतित से रहते थे और इसीलिए उसको सिर्फ इतवार को ही कॉलेज जाने की इजाज़त थी । रोज़ वो रेहाना को नई-नई हिदायतें देने लग जाते कि फलाँ की लड़की फलाँ के लड़के के साथ भाग गयी और निकाह कर बैठी । वो सोचते थे कि इस  तरह से बच्चे हाथ से नहीं निकला करते हैं मगर जवानी तो चीज़ ही अनोखी होती है जनाब ! जब दो जवान दिल धड़कते हैं तब हज़ार पहरे भी उन्हें रोक नहीं पाते हैं और आपकी नाक के नीचे से निकल कर वो कब अपनी एक अलग दुनिया बसा लेते हैं …..इसका अंदाजा भी माता-पिता को नहीं लग पाता है ।
श्याम और रेहाना करीब पाँच साल पहले सूरजकुंड के मेले में मिले थे । तब रेहाना ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती थी और स्कूल की तरफ से पिकनिक मनाने वहाँ गई थी । श्याम भी उन दिनों अपने  M.B.A के आखिरी semester का इम्तिहान देने वाला था । फरवरी का वो हलकी -हल्की सी ठण्ड वाला महीना ……दोनों ही कॉफ़ी लेने के लिए टिकट काउन्टर पर एक-दूसरे के आगे -पीछे खड़े अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे कि तभी रेहाना की रेशमी ज़ुल्फें एक अनोखी सी खता कर बैठीं । रेहाना की चोटी …..उसके नितम्बों तक जाती थी जिसकी वजह से उसकी सभी सखियाँ उसके बालों की रोज़ ही प्रशंसा करती थीं । अब आजकल के ज़माने में ….और वो भी शहरों में ……इतने लम्बे बाल कौन रखता है भला ? मगर कभी किसी दिन ये लम्बे बाल भी एक सज़ा बन जाएँगे ….रेहाना ने ऐसा कभी नहीं सोचा था । उसने अपनी चोटी आगे की तरफ की हुई थी कि तभी अचानक कॉफ़ी के कप पकड़ने के लिए उसको उसे एक झटके के साथ पीछे करना पड़ा ।अब हाथ में चार गरम कप कॉफ़ी के …..जो उसने अपनी सखियों के लिए लिए थे …..और ऊपर से चोटी का वो झटका । बेचारी की चोटी सीधी जाकर श्याम की पतलून में लगे बटन में जा अटकी । बटन ….जी हाँ ….बटन ! श्याम मॉडर्न होते हुए भी ज़िप के बदले बटन वाली पतलून पहनता था क्योंकि बचपन में एक बार उसकी “चुई” उसकी ज़िप में जो फँस गयी थी ।बस उसकी माँ का तो रो-रो कर बुरा हाल था और तभी से वो उसको बटन वाली पतलून ही पहनने देती हैं ।बस रेहाना अपनी चोटी को छुड़ाने में लगी थी और श्याम अपनी इज्ज़त को बचाने में । और फिर आखिरी में उसकी एक सहेली ने कैंची लाकर रेहाना की चोटी को काट कर अलग किया । रेहाना रोने लगी क्योंकि उसे अपने बालों से बहुत प्यार था और श्याम अपनी पतलून में फँसे उन बालों को एक मीठी याद के साथ अपने घर लेकर चला गया था ।
तकरीबन एक हफ्ते बाद …..रेहाना को स्कूल के प्रिंसिपल ने अपने कक्ष में बुलाया और कहा कि कोई उससे मिलने आया है । रेहाना ने देखा तो वो श्याम था । इससे पहले कि रेहाना कुछ बोल पाती ….श्याम ने झट से उसके हाथ में एक किताब थमा दी और कहा कि यह किताब वह उस दिन स्कूल की पिकनिक के दौरान मेले में छोड़ आयी थी और इतना कह कर वह चला गया । प्रिंसिपल ने भी उसे तुरंत कक्षा में वापस जाने का आदेश दिया । लंच ब्रेक होने पर रेहाना ने झट से वह किताब खोली तो देखा उसमे उसके चोटी के वही कटे हुए बाल रखे हुए थे और साथ ही एक प्यारा सा ख़त उसके नाम था । रेहाना उस ख़त को पढ़ने लगी जिसमे लिखा था -
जी नमस्ते !
आपका नाम तो मैं नहीं जानता पर आपकी स्कूल बस से आपके स्कूल का पता लिया था । दरअसल उस दिन मैं खुद भी बहुत अजीब सा महसूस कर रहा था । जानता हूँ कि मेरी वजह से आपके बालों को नुकसान  पहुँचा । मैं इन बालों को जब -जब देखता था मुझे अन्दर से एक ग्लानि होती थी इसलिए आपको आज लौटाने चला आया । मेरा नाम श्याम है और मैं आपके ही शहर में रहता हूँ । हो सके तो मुझे माफ़ कर देना । मैं आपके जवाब का इंतज़ार करूँगा । मेरा फ़ोन नंबर नीचे लिखा है ।
एक अजनबी ।
ख़त पढ़कर रेहाना की आँखों से भी आँसू छलक आए । उसने कभी नहीं सोचा था कि कोई उसके बालों को लेकर इतना परेशान होगा । बस आगे की कक्षा में अध्यापिका ने क्या पढ़ाया …रेहाना को कुछ भी याद नहीं था । उसका मन तो सिर्फ श्याम ….उसकी किताब…किताब में रखे वो बाल …..और उसका लिखा ख़त ही घूम रहे थे । अब तक न जाने कितनी ही बार वो उस ख़त को चोरी-चोरी पढ़ चुकी थी । घर पहुँचते ही रेहाना ने सर दर्द का बहाना किया और सीधा अपने कमरे में चली गई । उसका दिल बहुत ज़ोरों से धड़क रहा था । उसने एक पल भी खराब नहीं किया और सीधा श्याम को फ़ोन मिला दिया । दूसरी तरफ से एक मर्दानी सी आवाज़ में “हेलो ” सुनकर रेहाना मानो उसकी आवाज़ में ही खो गयी । शिक्वे…शिकायतें करते-करते न जाने कब एक दूसरे से मिलने की हामी भर करीब एक घंटे बाद उन्होंने फ़ोन रख दिया । रेहाना तो मानो दीवानी सी हो चली थी ….और उधर श्याम का भी बुरा हाल था । आखिर वो भी तो पहली ही बार किसी लड़की से इतनी बात फ़ोन पर कर पाया था ।
उस रोज़ सोमवार था यानि हफ्ता अभी शुरू ही हुआ था ….और रेहाना और श्याम ने इतवार को मिलना था क्योंकि तभी रेहाना घर से बाहर निकल सकती थी । बस छह दिन उन दोनों ने कैसे काटे कुछ पता नहीं …..और फिर इतवार को अपनी बुआ से मिलने जाने के बहाने रेहाना घर से निकली । अब बच्ची है ….रिश्तेदारों के नहीं भेजें तो और कहाँ भेजें इसलिए अख्तर मियाँ ने मना भी नहीं किया । बस यहीं से सिलसिला शुरू हुआ उन दोनों के इश्क का और धीरे-धीरे एक प्यार जैसा शब्द उनकी भी प्रेम कहानी में उतर गया ।
और आज पाँच साल बाद भी …वो दोनों ऐसे ही छुप-छुप कर मिलते थे  । ये एक ऐसा मज़हबी प्यार था जहाँ दूर-दूर तक मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी । हर बार वो बस यही सोचते कि कैसे हम एक -दूसरे  के परिवार वालों को राज़ी करेंगे मगर ऐसा कर पाना बिलकुल भी संभव नहीं था । अब उनके बीच प्यार और ज्यादा गहराने लगा और उन्हें पता ही नहीं चला कि वो कब अपनी-अपनी जिस्मानी भूख को शांत करने की चाह में एक दिन ……एक तूफानी बरसात में ……एक होटल के कमरे में …..न रोक पाने वाली भावनायों में बह गए । अब आग और फूस भी कभी साथ-साथ रह पाएँ  हैं ?
उधर अपनी लख्ते~ए~जिगर के हाव-भाव को भाँपते हुए मियाँ अख्तर ने रेहाना की पढ़ाई बीच में ही छुड़वाकर उसका निकाह मियाँ सलीम से कर दिया । सलीम मियाँ  पेशे से एक व्यापारी थे इसलिए महीने में करीब तीन या चार दिनों के लिए ही घर पर आते थे और बाकी का सारा महीना उनका कहीं न कहीं टूर पर ही निकल जाता था । रेहाना तो मानो अपने विवाह के बाद से जड़ सी हो गयी थी । उसके तो सारे अरमान मानो किसी ने कुचल ही डाले थे । उधर श्याम भी बस कहीं खोया सा रहता था ….आखिर कहता भी तो किससे कहता …..क्या कहता …..और कौन सुनता उसकी ? उसके माता-पिता भी तो उसके लिए बचपन से ही अपनी ही बिरादरी और धर्म की एक सुन्दर सी बहू लाने के सपने सँजोए बैठे थे । पहले तो वो शादी को मना करता रहा परन्तु एक उम्र के बाद तो सभी को इस बंधन में बंधना ही पड़ता है और आखिरकार उसने भी सुमन से शादी कर ली । सुमन बहुत ही सुन्दर और सुशील थी और एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी करती थी । अब आजकल के ज़माने में अगर लड़का -लड़की दोनों ही नौकरी करेंगे तो घर परिवार आसानी से चल जाता है और श्याम एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता था इसलिए सुमन को नौकरी पर भेजना उसके भी हित में ही था ।
आज दस साल बीत चुके हैं ……….श्याम की एक प्यारी सी बेटी है और रेहाना के दो बेटे । दोनों ही अपनी-अपनी जिंदगी में मस्त …..पर क्या आप ये सोच रहे हैं कि इन दस सालों में दोनों एक दूसरे से कभी मिले ही नहीं ? जी नहीं …..पिछले दस सालों में उनका एक -दूसरे के साथ लगातार संपर्क बना रहा । अब आजकल तो माडर्न ज़माना है …..आप अगर चाहें तो घर पर बैठकर भी मोबाइल या इन्टरनेट के ज़रिये अपने चाहने वाले से संपर्क बना सकते हैं । अब इसमें भला धर्म और जाति पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। वैसे भी श्याम और रेहाना के लिए ये संपर्क अनिवार्य था । रेहाना का बड़ा बेटा “शमशाद हसन” ……रोज़ ही अपने अब्बा “श्याम” से इसी नयी टेक्नोलॉजी के ज़रिये रु~ब~रु होता था । यही तो एक ऐसी पहचान थी जिसे पाकर रेहाना अब तक संभल पायी थी और यही एक ऐसा राज़ भी …….जो श्याम और रेहाना ……..अब तक अपने-अपने धर्म और जात वालों से छुपा पाए थे ।
आज दुनिया वाले यही समझते और पढ़ा करते हैं कि मजहबी इश्क की कोई पहचान नहीं होती मगर “शमशाद हसन” एक ऐसी पहचान है जो आज भी उन दोनों को एक-दूसरे के साथ बाँधे हुए है । हाँ ये सच है की कभी-कभी इश्क पर जोर नहीं चल पाता परन्तु “दिलों” पर जोर अगर चाहें तो उसकी उम्र आज भी कोई नहीं है और शायद इसीलिए जब-जब रेहाना तन्हाइयों में खड़ी होकर कोई गीत गुनगुनाती है तो उसके लबों पर हमेशा यही दो पंक्तियाँ उभर कर आती हैं जो उसके मन को सुकून और चैन दे जाती हैं …..
” ये मज़हबी दीवारें ……तोड़ न सकीं …….मेरे “श्याम” को ……पाने से ,
मंजिलें खुद ~ब~~खुद मिल गयीं …..अपनी चाहतों को छिपाया जब ……..हमने ज़माने से ॥ “

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